तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

मुलाकात


तुम तो कहतीं थी, मेरे द्वार खुले हैं हरपल

तुम्हारे लिए!

पर वहाँ एक ताला था।

मैं सीढियों पर बैठा करता रहा तुम्हारा इंतज़ार

१ घंटा दो घंटे विवश।

आखिर मैंने खिड़की से झाँका....

सुखा गुलाब का फूल, एक किताब, मोर पंख....

फिर हवा का एक तेज़ झोंखा आया और....

कुछ पन्ने फडफ्डाये ....

एक पन्ना उड़ चला, कुछ पुराना सा परिचित सा, पीला-पीला सा पन्ना....

मैंने सिर्फ अपना नाम पढा, मुस्कुराया

ताले पर नज़र डाली और गुनगुनाता हुआ...

चल पड़ा तुमसे मिला अच्छा लगा...

एक मुलाकात और जुड़ गयी यादों की...

तुम तो मुझे छोड़ कर चली गयीं पर....

में अब भी जिंदा हूँ....


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