तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

साथी घर जाकर मत कहना...

यह कविता १९९४-९५ में मेरे शहीद भाई के मेरठ स्थित आर्मी स्कूल की वार्षिक किताब प्रतिभा में छपी थी... तब उसने मुझे वो किताब भेंट दी थी... यह कविता किसी नीलम जी ने लिखी है...जो उस समय छठी कक्षा में पढ़ती थी... जो में आप सबसे बाँट रहा हूँ..
खास कर यह मैंने श्री गौतम राजरिशी जी के लिए डाली है... हम बीते साल को अलविदा कह रहे हैं. लेकिन इस बीते साल को हमारे लिए खुशनुमा बनाने वाले बहुत सारे ऐसे शहीद हैं जो अपने घर लौट के नहीं आये... और बहुत से अभी भी सरहद पर तैनात हैं केवल और केवल हमारी रक्षा के लिए... उन सभी को मेरी तरफ से ढेर सारी दुआएं...




साथी घर जाकर मत कहना...
साथी घर जाकर मत कहना...
 
यदि हाल मेरी माँ पूछे तो
जलता दिया बुझा देना
इतने पर भी ना समझे
तो मुरझाया फूल दिखा देना
साथी घर जाकर मत कहना...
साथी घर जाकर मत कहना...

यदि हाल मेरी बहना पूछे
धागा तोड़ दिखा देना
इतने पर भी ना समझे
तो सब कुछ समझा देना
साथी घर जाकर मत कहना...
साथी घर जाकर मत कहना...

यदि हाल मेरी पत्नी पूछे तो
मांग का सिंदूर मिटा देना
यदि इतने पर भी न समझे
तो कंगन तोड़ दिखा देना
साथी घर जाकर मत कहना...
साथी घर जाकर मत कहना...

                        नीलम कुमारी
                        ६ अ 

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ज़िन्दगी सपनों के टुकड़े ले, सिरहाने पे रोती है...


ज़िन्दगी सपनों के टुकड़े ले, सिरहाने पे रोती है...
घिस रहा बदन, घाव भरता नहीं
रिस रहा आँखों से, लहू रुकता नहीं
उधड़ने लगे हैं, अब ज़िन्दगी के पैबंद,
सीयू इनको तो चुभन होती है...
ज़िन्दगी सपनों के टुकड़े ले, सिरहाने पे रोती है...
सांस गरल बन सीने में थमीं,
सूखती नहीं अब आँखों की नमीं
ज़हर से कड़वे हैं, सच जीवन के,
पियूं  इनको तो घुटन होती है...
ज़िन्दगी सपनों के टुकड़े ले, सिरहाने पे रोती है...
दिल का टुकड़ा खोया कहीं
ढूंढने को छानी है सारी जमीं
पाने को अब कुछ दिल नहीं करता
ये पाती कुछ नहीं सिर्फ खोती है,
ज़िन्दगी सपनों के टुकड़े ले, सिरहाने पे रोती है...

**मीत**
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तेरी दुनिया के निराले, दस्तूर हैं...

पता  नहीं क्या लिखा है, बस दिल में आया ओर लिख दिया.. अगर कुछ उल्टा-पुल्टा हो कृपया बेझिझक बताइयेगा..जिससे की मैं सुधार सकूँ...
स्नेह
मीत 


 तेरी दुनिया के निराले,
दस्तूर हैं...
ग़मज़दा चेहरों पे ये कैसा,
नूर है...
खा रहा है गालियाँ, बदनाम हो रहा है,
लोग कहते हैं यही तो,
मशहूर है...
मुह सीये बैठे हैं, दिल में सबके
चोर है...
खिंच रहे हैं गर्त में, कोन सी ये,
डोर है...
फट रहे कानों के परदे,
किसके सीने का
शोर है...
तेरी दुनिया के निराले,
दस्तूर हैं...
क्यों नहीं पहुँचती है दुआ
खुदा तक...
आसमां धरती से क्या हो गया
दूर है...
उठे हुए हाथ भी अब थकन से
चूर हैं...
या खुदा मैं जान लूं, तू मीत  से भी
मजबूर है...
तेरी दुनिया के निराले,
दस्तूर हैं...

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प्यार तुम्हारा मोर पंख सा...


पास नहीं हो दूर हो तुम,
पर बसे हुए हो नयनों में
प्यार तुम्हारा मोर पंख सा,
रखा है मन के पन्नों में

सदा नहीं अब गूंज रही है,
सन्नाटा बोले कर्णों पे
पर गीत तुम्हारे सजल सजल,
शब्द बने हैं अधरों पे

काश कहीं से आ जाते तुम,
कसक मिटाते जन्मों की
साथ बैठ कर बातें होती,
तेरे मेरे सपनो की

धुंधला हैं अब अक्स तुम्हारा
 जीवन के सब वर्णों में
प्यार तुम्हारा मोर पंख सा,
रखा है मन के पन्नों में
                            --मीत


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मन से निकले मुक्तक...

वैसे तो मुक्तक क्या है, उसकी परिभाषा क्या है.. नहीं जानता... बस लिखने को मन किया तो मन के भावों को ही शब्दों में उडेल दिया... उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आये... गलतियाँ हों तो जानने की इच्छा रखता हूँ, ताकि सुधार सकूँ...
1

ज़िन्दगी की हर रात को स्वर दिया है
मन-आँगन को गीतों से भर लिया है
गुनगुना रहा हूँ मैं अब प्रेम-गीत
प्रेम ने मन में मेरे घर किया है. 


2

  ना मालूम किस ओर जा रहा हूँ
कौन सा सुख मैं पा रहा हूँ
क्या मैं ही आज का इंसान हूँ

नोच कर इंसानियत को खा रहा हूँ.

3


कलम मेरी फिर डगमगाई है
अपने लिए एक पड़ाव ले आई है
लिखना है कुछ, पर लिखता हूँ कुछ
आज फिर से उंगलियाँ थरथराई हैं. 


4

प्रीत की डोर में बाँध दिया मुझे
रिश्तों के सलीब पे टांग दिया मुझे
पास सिर्फ एक तन्हाई है
क्यों ऐसा जीवन वीरान दिया मुझे.


5

दूर कहीं अब चल पड़ा है मन
नए सफ़र पे निकल पड़ा है मन
टूट कर कहीं बिखर ना जाये
आप अपने से लड़ पड़ा है मन.


"मीत"



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रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...

 रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है... 

प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
हर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,

रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...

तकिया से मन को, कभी सराहने पे दबा लेता,
बिछौना बना ज़िन्दगी के पलंग पे कभी बिछा लेता,
आज ये ख्वाहिशों की लाठी बन, मुझसे लड़ चला है,

रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...

हाँथ है की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुहं फेर के पड़ा है,

रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...

                                          ---मीत
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झीनी-झीनी बारिश...

वो हर सुबह आते जाते लोगो को बारिश के लिए दुआ करते देख और सुन रहा था... हर तरफ लगभग एक ही जुमला सुनने को मिलता...हे भगवान तू कितना निर्दयी है?? क्या इस साल गर्मी से ही मार देगा... बात सही भी थी कितने ही दिन हुए थे, बारिश थी की आने का नाम ही नहीं ले रही थी. सावन निकलने को था लेकिन गर्मी से सुलग रही धरती पर बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी थी... उसे ख़ुशी थी की बारिश नहीं हो रही है... अच्छा है होनी भी नहीं चाहिए... उसे बहुत डर था की अगर कहीं ये बारिश हो गई तो उसके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी...इसलिए खुदा से हरदम बारिश ना होने की दुआ मांग रहा  था...
      और फिर एक रोज उसने खबर सुनी की फसल मर जाने की वजह से एक किसान ने आत्म-हत्या कर ली... वो डर गया... हर तरफ से उसके कानों में केवल एक ही आवाज़ पढ़ रही थी... सूखा... सूखा... सूखा... आखिर वो लोगो के दुःख के आगे हार गया और उसने भी अपने हाथ दुआ में उठाये और दुआ मांग ही डाली... दुआ में उसने वही माँगा जो उसे ना पसंद था... पानी...
      कहते हैं खुदा देर से सुनता है पर ये क्या उसकी आवाज़ पल भर में खुदा तक जा पहुंची... और सारी फिजा पानी से नहा गयी... तीन दिन से पानी लगातार बरस रहा था... उसका डर बढ़ गया था, दिल की धड़कने किसी सुपरफास्ट ट्रेन की तरह भाग रही थी... वो जल्दी से अपने घर पहुंचना चाहता था... तीन दिन से वोअपने घर से दूर था...
आखिर वो वो घर पहुंचा... देखते ही माँ उस से बोली देख बेटा भगवान् ने हमारी नहीं सुनी ना.. आखिर बारिश कर ही दी...  एक तो ये एक टूटा फूटा कमरा उस पर से लगातार होती ये झीनी-झीनी बारिश, सुना है यह बारिश बहुत खतरनाक होती है... इस बारिश की वजह से बड़े-बड़े मकान ढह जाते हैं... बेटा तीन दिन से घर की छत से पानी टपक रहा है... मैं ही जानती हूँ की तीन दिन से सारे बच्चों को किस तरह संभाले हूँ... कहीं हमारी छत भी गिर गई तो... तू ही बता ने ये बारिश बंद क्यों नहीं होती... अगर इस साल ना बरसता तो क्या हो जाता...??
     माँ के इतने सारे सवालों के आगे वो खामोश था... उसने आपने परिवार को बाहों में भरा और एक कोने में सिमट गया...पर उसकी बाहें छोटी थी...उसने आसमान की तरफ देखा... और मुस्कुरा दिया...आखिर उसी ने तो दुआ में मांगी थी यह बारिश...
खुदा तो हर किसी की सुनता है, यह तो और बात है की,
कहीं ऑंखें बरसती हैं, तो कहीं,
घर टपकता है...

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दिल तो खिलौना है

दिल तो खिलौना है,
आँखों को रोना है,
इस जहाँ में ना था कोई, अपना,
ना हम किसी के हैं,
ना किसी का होना है...
एक दोस्त बनाया था,
हँसना उसने सिखाया था,
भूल गए थे वो तो है इंसान,
हमने तो उसे,
भगवान के साथ बैठाया था...
रोंद के भावों को चल दिया वो,
बात आज ऐसी कह गया वो,
जिस्म की खराश तो मिटा लेते,
पर अफ़सोस तो यही है,
रूह को चाक-चाक कर गया वो...
---Evergreen Tumhara Uska Or Sabka मीत
(यह शब्द भी उसी ने कहे)
आज एक दोस्त ने कुछ ऐसी बाते कह दी की मन से ये शब्द निकल आये...
पर इश्वर से प्रार्थना करता हूँ वो हमेशा खुश रहे, उसके दुःख मुझे दे दे भगवान...

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मैंने वो सपना सहेज रखा है...

उनींदी स्याह रातों में...
रिश्तों की उलझी डोर से,
जिसे तुमने बुना था,
वो सपना...
मैंने सहेज रखा है...
हाँ वही सपना...!!
जो तुम्हें जान से प्यारा था..
वही सपना...
जो तुम्हारे मन का सहारा था...
पलकों की चादर फैंक,
आज ये कहीं उड़ जाना चाहता है...
जब रोकता हूँ इसको
तो घंटो छटपटाता है...
ना जाने देना इसको
तुमने ही तो कहा था,
पलकों के किनारे इसको
तुमने ही तो रखा था...
हाँ...देखो ना...
वो सपना
मैंने सहेज रखा है...
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शिरडी की यात्रा

१२ से १६ अगस्त की छुट्टियाँ थी, बहुत दिनों से सोच रहा था की शिरडी के साईं बाबा की समाधी-दर्शन के लिए जाऊं. सो बस चला गया. बहुत अच्छा लगा जाकर लेकिन अभी भी वो पवित्र स्थान बहुत से लोगो के लिए नया है. वहां मैंने कुछ तसवीरें भी ली, फिर सोचा क्यों अपनी शिरडी यात्रा को मैं आपके साथ भी बाँट लू. तो बस उसी पर यह पोस्ट है.
महाराष्ट्र के एक छोटे से जिले में बसा है शिरडी गाँव जहाँ साईं बाबा ने बहुत दिनों तक वास किया था, और अपने भक्तों जग का कल्याण करते हुए वही समाधी भी ले ली थी.
कहते हैं कोई चाहे चाहे बाबा की अगर मर्जी हुयी तो वो किसी को भी वहां बुला लेते हैं, जैसे मुझे बुलाया. मैं आपको अपनी यात्रा के बारे में बताता हूँ, भविष्य में कभी पका जाना हुआ तो शायद मेरे ब्लॉग से आपको कुछ जानकारी मिल जाये, क्योंकि मैं भी वहां पहली बार गया था. तो ज्यादा जानकारी नहीं थी.
हम दो लोग थे एक मैं और साथ में मेरा छोटा भाई. हमने ट्रेन का सफ़र करना तय किया. रस्ते में ढेर सारे स्टेशन पड़े- मथुरा, आगरा, झाँसी, भोपाल, चालीस गाँव और अंत में हमारी ट्रेन पहुंची कोपरगाँव यह वह स्टेशन है जहाँ से आप आधे घन्टे के सफ़र में शिरडी जा सकते हैं.
श्रधालुओं को ले जाने के लिए यहाँ से ऑटो चलते हैं जो शिरडी तक ले जाने के लिए २० रुपये प्रति सवारी लेते हैं. जब हम दिल्ली से चले थे तो गर्मी ने हमारा बुरा हाल कर रखा था लेकिन झाँसी पहुँचने के बाद बाबा की कृपा से तेज ठंडी हवाओं के साथ बारिश शुरू हो गयी और मौसम एकदम खिल गया और हमारा सफ़र बेहद खूबसूरत हो गया. तेज बरसा के साथ सुंदर-सुंदर हरेभरे पेड़ों को ट्रेनों से देखना मन को बहु बता है और साथ ही ऊँचे नीचे पहाड़. जब पहाडो के बीच से होती हुयी ट्रेन निकलती है तो वो नजारा देखने लायक होता है. आप अपनी ट्रेन का इंजन अपनी ही खिड़की से देख सकते हैं. इस रस्ते में कई सुरंगे भी पड़ती हैं, जिनसे गुजरते समय लोग बहुत शोर मचाते हैं. ट्रेन से दिल्ली से कोपरगाँव तक का सफ़र करने में हमें लगभग २४ घंटे लगे। हम १३ को सुबह १० बजे ट्रेन में बैठे और १४ तारीख को बजे ट्रेन ने हूमें कोपरगाँव स्टेशन पर उतार दिया.

ोपरगाँव उतरने के बाद हमें स्टेशन के बाहर से ही ऑटो मिले जो हमें शिरडी तक ले कर गए। ऑटो में बैठे हुए मैं यही सोच रहा था की शिरडी कैसा होगा? जैसा शिरडी धारावाहिकों में दिखाते हैं कुछ उसी तरह की तस्वीर मेरे मन में भी बनी हुयी थी, पर जब शिरडी पहुंचा तो वहां का नजारा अलग ही था. यह गाँव से एक शहर में तब्दील हो चूका है. यहाँ श्रधालुओं के लिए हर तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। लगभग आधे-पौने घंटे में ऑटो ने हमने शिरडी में उतार दिया. यहाँ बाबा के समाधी मंदिर से कुछ ही दुरी पर भक्तों के लिए एक बहुत बड़ी धर्मशाला बनी है.

जिसके बाहर ही हमें ऑटो ने उतारा. यहाँ उतरने के बाद हम धर्मशाला में गए लेकिन भीड़ ज्यादा होने के कारण कमरा मिलना हमें मुश्किल लग रहा था. क्योंकि छुट्टियाँ होने के कारण श्रधालुओं की बहुत लम्बी लाइन लगी थी. हमने होटल में कमरा लेना ठीक समझा. एक चीज आप लोगो से मैं जरुर बांटना चाहूँगा. इस पवित्र शिरडी गाँव में वहां के लोगो ने महंगाई बहुत ज्यादा की हुयी है। हमें दो दिन के लिए कमरा चाहिए था। पहले तो हमें वहां होटल में कमरा ही नहीं मिला और जब एक होटल में मिला तो हमने होटल वाले से पुछा तो वो bola की एक दिन का किराया १६०० रूपये है और कल १५ अगस्त है तो डबल किराया लगेगा. १५ अगस्त पे रियायत होनी चाहिए की किराया डबल॥? आखिर मज़बूरी में हमें कमरा लेना पड़ा लेकिन डबल किराये वाले को हमने माना कर दिया। यहाँ के रहने वाले लोग भी पैसे लेकर कमरा देते हैं

हम इसके बाद नहा-धोकर बाबा की समाधी-दर्शन के लिए निकले. यहाँ प्रसाद की दुकान वालों ने अपने एजेंट छोड़ रखे हैं. वो हमारे पास आये और बोले की आओ साब दर्शन करते हैं. मैंने कहा की वैसे हमें दर्शन नहीं होंगे क्या? तो वो बोला की साब अगर आप हमारी दुकान से प्रसाद लोगे तो आपको हम डायरेक्ट आरती में एंट्री कराएगा. आरती की वजह से अभी लाइन रुकी है. हमारा आदमी आपको ले के जायेगा और सीधा समाधी पे एंट्री कराएगा. मेरे मन में लालच गया, मैंने सोचा की ये प्रसाद जरुर महंगा देगा लेकिन आरती तो करने के लिए मिल जायेगी. उसने मेरे अंदाज़ के मुताबिक ही प्रसाद की बहुत महंगी थैली बनाई. पर मैंने सोचा कोई बात नहीं आरती तो मिलेगी. हालाँकि बाबा को परसाद, चादर, या किसी चीज का चढावा नहीं चाहि आप एक फूल लेकर भी उनके पास जायेंगे तो वो ही उनके लिए काफी होता है.
मुझे अपनी गलती का एहसास जब हुआ अब उस प्रसाद वाले ने मुझे उसी लाइन में लगा दिया जहाँ सब जा रहे थे. मैं समझ गया की बाबा जब चाहेंगे तभी कोई आरती में पहुँच सकता है, नहीं तो नहीं. अगर आप कभी जाएँ तो उन प्रसाद वालों से जरुर सावधान रहे ये - हज़ार रुपये की प्रसाद की थालियाँ बना कर दे देते हैं, और श्रद्धालू ले भी लेते हैं. खैर हमें यहाँ बहुत अच्छे दर्शन हुए. इसके बाद हम समधी मंदिर से बहार निकले वहां बाबा का पूरा शिरडी परिसर है.

इसके बाद हमने इस परिसर में बाबा का म्यूज़ियम देखा जहाँ साईं बाबा का कुरता, चिलम, उनका भिक्षा लेने का पात्र, पालकी, जिसमे बाबा ने खिचडी बनाई थी वो ताम्बे की हंडी, बाबा का नहाने का पत्थर और बहुत सी चीजे हैं. म्यूज़ियम के बाद हमने बाबा की उडी प्राप्त की, जिसके लिए काफी लम्बी लाइन लगी थी. फिर इसी परिसर में हमने बाबा का लेंडी बैग देखा जहाँ बाबा पेड़-पौधों में पानी लगते थे. यहाँ वो कुआँ भी है जिसमे से बाबा पानी भरते थे.
इसके आलावा यहाँ श्रधालुओं के लिए रेलवे आरक्षण, रक्तदान, चिकित्सालय, बैंक ATM भी है. आपको एक खास बात बता दूं की इस परिसर में कैमरा या मोबाइल ले जाना सख्त माना है. इसलिए आप कैमरा या मोबाइल अपने होटल में ही छोड़ कर जाएँ. हमें दर्शन के दौरान ही एक कूपन दिया गया, जिसके द्वारा हम बाबा के प्रसादालय में खाना खा सकते थे. समाधी परिसर में बाबा के साथ रहने वाले अन्य लोगो की भी समाधियाँ बनी हुयी हैं.

इस पूरे परिसर को घुमने के बाद हम द्वारिकमाई गए, जहाँ बाबा धुनी रमाते थे, यहाँ बाबा का चूल्हा और वो पत्थर भी है जिस पर बाबा बैठते थे, जिस पर बैठे हुए ही उनकी हर जगह तस्वीर और मूर्तियाँ हैं. यहाँ बाबा ने पानी के दिए भी जलाये थे, यहाँ भक्तों को बाबा के दिए का तेल भी मिलता है, जिसे दर्द में लगाने से तुंरत आराम हो जाता है.

इसके बाद हमने चावडी और उसी के सामने अब्दुल बाबा की झोपणी देखि.

उसके बाद थोडी ही दूर पर लक्ष्मीबाई का घर है जिन्हें बाबा ने सिक्के दिए थे, शीशे में जड़े यह सिक्के आज भी वैसे के वैसे साईं का एहसास लिए हुए रखे हैं. यही एक कुआँ भी है.



फिर हम बाबा के प्रसादालय में गए यहाँ का नजारा इतना सुंदर था की वहां से कहीं और जाने का मन ही नहीं कर रहा था. जिन लोगो को कमरा या धरमशाला मिले वो यहाँ भी रात बिता सकते हैं. यह इतनी बड़ी जगह में बना हुआ है की लाखों लोग इसमें समां जाएँ, यहाँ छतों पर सोलर सिस्टम लगे हैं उसी से खाना पकता है. इस प्रसादालय मंजिलों पर एक बार में लगभग ८००० लोग एक साथ खाना खा सकते हैं. यहाँ खिचडी बनाते हुए बाबा की बहुत बड़ी मूर्ति बनी हुयी है. यहाँ फोटो खींचने की कोई मनाही नहीं है. आप जितने चाहें खिंच सकते हैं.

अंत में हमने खंडोबा मंदिर जहाँ बाबा पहली बार अब्दुल बाबा की लड़के की बारात में आये थे वहां गए.

इस यात्रा में मेरा मन प्रसन्न हो गया. उम्मीद करता हूँ बाबा फिर से मुझे वहां बुलाएँ.
ॐ साईं राम

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
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