तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

तुम्हारी यादों के पल

वक्त जो कभी थमा ही नहीं, कभी रुका भी नहीं...

चलता रहा और चलता ही रहा।

लेकिन सच ये है की वक्त केवल आगे नहीं चलता पीछे भी कटता है।

कुछ कटे वक्त अब भी हैं मेरी ज़िंदगी के खलिहान में, जो तुम्हारी याद में तिल-तिल मर रहे हैं...

शायद तुमने खुदगर्ज बन वक्त को बहुत पीछे छोड़ दिया ...

और काफी लम्बा सफर तय कर लिया...

मैं तो जैसे पत्थर बन गया, हिला भी नहीं अपनी जगह से...

बरस गुजारना होता तो यूं गुजार देता,

युगों को अपनी पलकों से झपक के साथ ऐसे उतर फेकता जैसे कोई लम्हा हो...

पर इनका क्या करूं ?

तुम्हारी यादों के पल बडे ही बेरहम हैं ये...

युगों से भी लम्बे...

कमबख्त कटते ही नहीं हैं

अब तो रूह कटती जाती है...

मेरी ज़िंदगी बूंद-बूंद आँखों से टपक रही है...

जाने कब ये बारिश रुक जाये

और ज़िंदगी का ये सिलसिला भी थम जाये...

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