तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

मेरी ज़िंदगी

क्या हुआ जो ज़िंदगी तमाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई

आदत सी हो गई थी मदहोश रहने की

सीने में गम छिपा कर खामोश रहने की

क्या हुआ जो हस्ती मेरी बदनाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

पीता था इस कदर की बेहोश हुआ जाता था

मेरे अपनों को मेरा गम कहाँ नज़र आता था

क्या हुआ जो बद्दुआ अपनों की मुझको इनाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

टूटा जो दिल तो खनक उठी हर रात

हर रात को खामोशी ही मेरी कद्रदान हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

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