मेरी तरह ना जाने कितने ही हैं,
जिन्हें राही नहीं निलते।
तन्हा तय करते हैं वो सफ़र अपना।
और कितने ही मुसाफिर तो ऐसे भी हैं,
जो अपनी ही धुन में बस चले जा रहे हैं, मंजिल की तस्वीर अपनी आँखों में लिए।
वो तो पूछते भी नहीं इन रास्तों से की क्या तुम्हें भी साथ चलना है या नहीं।
ये रास्ता भी कुछ ऐसे लगता है, जैसे की एक बेज़बान माँ, जो अपने आँचल को पसारे साथ-साथ चलती जाती है।
हर सर्द-ओ-गम से लड़ती हुई। चुपचाप!
और चाहती भी नहीं की कोई उसे देखे, कोई उसे सराहे।
वैसे खुशकिस्मत हैं वो लोग जिन्हें रस्ते में कोई साथी मिला है।
जिनको सफ़र में कोई हमसफ़र मिला हो...
चाहे फिर वो हमसफ़र गम ही क्यों न हो...
जिन्हें राही नहीं निलते।
तन्हा तय करते हैं वो सफ़र अपना।
और कितने ही मुसाफिर तो ऐसे भी हैं,
जो अपनी ही धुन में बस चले जा रहे हैं, मंजिल की तस्वीर अपनी आँखों में लिए।
वो तो पूछते भी नहीं इन रास्तों से की क्या तुम्हें भी साथ चलना है या नहीं।
ये रास्ता भी कुछ ऐसे लगता है, जैसे की एक बेज़बान माँ, जो अपने आँचल को पसारे साथ-साथ चलती जाती है।
हर सर्द-ओ-गम से लड़ती हुई। चुपचाप!
और चाहती भी नहीं की कोई उसे देखे, कोई उसे सराहे।
वैसे खुशकिस्मत हैं वो लोग जिन्हें रस्ते में कोई साथी मिला है।
जिनको सफ़र में कोई हमसफ़र मिला हो...
चाहे फिर वो हमसफ़र गम ही क्यों न हो...
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heloo sir
thanks for appreciating my poem
there are a few more poems by me on the same blog let me know ur views about them as well