वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं,
भरकर बूंदों की टोकरी,
वो गड़-गड़ करते आये हैं,
बैठ हवा के सिंहासन पर,
वो बिजुरी संग इतराते हैं।
इस सूखी-सूखी सी माटी पे,
गीले से तीर चलाते हैं।
दिखते हैं उनको भी नभ से,
कुछ सूखे से जो साये हैं।
वो उमड़-घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये।
वो काले हैं, मतवाले हैं,
लगते सागर के प्याले हैं।
इनकी ही चाहत में देखो,
मयूर ने अश्रु बहाए हैं।
वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं...
वो कड़-कड़ करते आये हैं,
भरकर बूंदों की टोकरी,
वो गड़-गड़ करते आये हैं,
बैठ हवा के सिंहासन पर,
वो बिजुरी संग इतराते हैं।
इस सूखी-सूखी सी माटी पे,
गीले से तीर चलाते हैं।
दिखते हैं उनको भी नभ से,
कुछ सूखे से जो साये हैं।
वो उमड़-घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये।
वो काले हैं, मतवाले हैं,
लगते सागर के प्याले हैं।
इनकी ही चाहत में देखो,
मयूर ने अश्रु बहाए हैं।
वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं...
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
meet G akele megh hi umarh ghumarh kar nahi aap bhi umarh ghumarh kar hi aye hain bahoot hi badhiya rachna. sundar lagi.
bhut sundar rachana.likhate rhe.
बारिश से सराबोर बहुत सुंदर रचना बढ़िया .