तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

कब कायम होगी शांति???

दो दिन से मन अशांत है। वजह शायद देश भर में फ़ैल रहा आतंक है।
TV पर जब निर्दोष लोगो की लाशें, खून में लिथड़े मासूम बच्चे और हर तरफ़ एक दहशत का माहोल देखता हूँ, तो दिल में एक अजीब सी दहशत जग उठती है, शायद अपनों को खोने की...
दिल काँप उठता है वो दिन याद कर के जब अब से कुछ साल पहले मेरी माँ चांदनी चौक में शोपिंग करने गयीं थी, तो वहां एक ज़बरदस्त बोंब-ब्लास्ट हुआ था, लेकिन में खुशनसीब था की मेरी माँ वहां से दूर थी, भगवान ने मेरी माँ को बचा लिया था, लेकिन वहां भी कितने ही निर्दोष लोग मारे गए थे...
मुझे याद है वो शाम का वक्त जब मैं घर में टीवी देख रहा था, और एक जोरदार धमाके की आवाज़ आई। मैं तुंरत घर से निकल उस ओर भगा जिस तरफ़ से बम की आवाज़ आई थी...क्योंकि मेरी माँ वहीँ गई थी। मैं फोवारे पर पहुँचा वहां छोटे-छोटे बच्चे, औरतें, कितने ही लोगों की लाशें सड़क पर पड़ी थी और लोग चीखते-चिल्लाते इधर से उधर भागते नज़र आ रहे थे। मैं अपनी माँ को तलाशने लगा। कुछ मिनट बाद ही वहां एक और बम फट गया उस बम का मंज़र मेरी आँखों से आज भी जाता नहीं है। सड़क पर पड़ा सामान अपनों को तलाशते लोग उस बम के धमाके मैं सड़क से कई फीट ऊपर उछले और नीचे गिरे।
लोगों का सामान ऊपर से जा रहे बिजली की तारों पर जा कर लटक गए। मेरा शरीर एकदम बेजान सा हो गया था। पुलिस ने आकर घायलों की मदद करनी शुरू की, वक्त पर अम्बुलेंस के न आने से पुलिस की पीसीआर में ही घायलों को गाज़र-मूली की तरह भर कर ले जाया जा रहा था। पुलिस ने एरिया सील कर दिया था। आगे जाने की किसी को इजाज़त नहीं थी। वहां मौत का तांडव देख कर मुझे लगा की मैंने अपनी माँ को खो दिया है...
मैं घंटे भर वहीँ घूमता रहा और फिर अपने आंसूं पोंछते हुए घर पहुंचा, तो माँ घर पर सुरक्षित थी काफी देर तक उनकी गोद में सर रख कर रोता रहा...
पता नहीं उन लोगो को ऐसा करके क्या हासिल होता है। आखिर वो चाहते क्या हैं। क्यों ऐसे करते हैं। इतने सारे मासूम लोगों की जान लेकर कौन सी खुशी मिल जाती है उन्हें। अपनों को खोने का दर्द क्यों नहीं समझते ये लोग आखिर कब इनसे दुनिया को आज़ादी मिलेगी। कब कायम होगी शांति???

मन में इतना ज़हर है इन लोगो के खिलाफ की दिल करता है अगर ये सामने आ जाएँ तो उन पर सारा ज़हर उगल दूं, लेकिन में जनता हूँ की यह लोग हमीं में से कोई है। अगर मेरे सामने भी आ जाये तो मैं पहचान भी ना पाउँगा
मन मैं अभी बहुत कुछ है...

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

मुझको भुला देना...

ना मुझको लेके आना, तुम अपने ख्यालों में
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना।
चाहता था रहना बन के, इक याद तेरे दिल में
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
ताने कसे जो दुनिया, चाहत पे कभी मेरी
तो दर्द अपने दिल का, दिल में ही दबा लेना।
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना...
जो पूछे कोई तुमसे, की क्या था तेरे दिल में
तो धोखा जिंदगी का, तुम मुझको बता देना।
तस्वीर पे तुम मेरी, बस गर्द रहने देना
भूले से कभी उसपे, ऊँगली ना फिरा देना।
जो बात मेरी बिसरी, तुमको कभी रुलाये
आँखों से कभी अपनी, आंसूं ना गिरा देना।
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
ना तुमसे कुछ है माँगा, ना प्यार ही लिया है
बस आंसुओं को अपने, तुम मेरा बना देना।
जिस पल कहेंगी सांसें, ये लम्हा आखिरी है
तो बूंदें आंसुओं की, तुम मुझ पे गिरा देना।
तेरे आंसुओं को पाकर, मेरी रूह चैन लेगी
मेरे जिस्म को तुम देखो, प्यासा ना सुला देना।
ये ही कसम है तुमको, बस इसको निभा देना...
ना याद मुझको करना, हाँ! मुझको भुला देना...
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खून या पानी...

कल एक माँ को जीने के लिए खून की जरुरत थी... मैंने अपना थोड़ा सा खून उसे दिया भी लेकिन मेरा खून उसकी रगों में जाने से पहले ही भगवान् ने उसे अपने पास बुला लिया... जिस समय डॉक्टरों ने कहा था की अब हम कुछ नहीं कर सकते... तब उसके पति ने बडे उदास चेहरे और आशाविहीन आँखों से मुझे ब्लड देने के लिए शुक्रिया किया था... और कहा था की प्लीज यार मेरी वाइफ के लिए दुआ करना की वो ठीक हो जाये क्योंकि डॉक्टर ने कहा है की इसे चमत्कार ही बचा सकता है...
तब मेने उसे कहा था की ऊपर वाले पर भरोसा रखो चमत्कार जरुर होगा और मेरी बात सुनकर उसके रूखे लबों पर हलकी सी मुस्कान भी आई थी...
जातेजाते मेने उसे कहा था की मैं तुम्हारी पत्नी के लिए दुआ करूँगा वो ठीक हो जाएँगी...
और कल शाम से सोने तक में उसके जीने के लिए प्रार्थना करता रहा, लेकिन मेरी प्रार्थना व्यर्थ ही गयी... कोई चमत्कार नहीं हुआ..
आज सुबह मुझे फोन आया की कल शाम ही वो माँ अपने तीन महीने के बच्चे और पति को छोड़कर चली गयी...
तब से यही सोच रहा हूँ की..

"मेरी रगों में खून नहीं, पानी है!
मेरी प्रार्थना सच्ची नहीं, बेमानी है!
क्यों बह रहा है, ये मुझमें जब किसी के काम नहीं आ सकता,
नफरत है मुझे ख़ुद से, जो मैं किसी की जिंदगी नहीं बचा सकता!"

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अंतर्मन

कल रात मैं अपने ऑफिस से घर के लिए निकला...मैं बस में बैठा था, स्टाप आने में अभी काफी दूरी बाकी थी। मेरा घर पुरानी दिल्ली में है, लेकिन बस अभी लाल किले पर ही थी। तभी मैले-कुचैले कपड़े पहने एक सीधा सा आदमी मेरे पास आकार बैठ गया। शायद बड़ी जल्दी मैं था...उसके गंदे कपड़े उसके पसीने से गीले थे और उससे मुहं से शराब की गंध आ रही थी। उसने मुझसे पुछा की रेलवे स्टेशन कब आयेगा। मैने उसे कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि शायद मुझे उससे घिन सी हो रही थी। उसने ये सवाल कई लोगो से पुछा, पर किसी ने उसे कोई जवाब नहीं दिया। मुझे उस पर झल्लाहट सी हो रही थी, की वो क्यों मेरे पास बैठा है और भी तो सीटें खाली हैं, वहां क्यों नहीं बैठ जाता? जब बस आगे बढ़ी तो उसके गीले कपड़े मुझसे छूने लगे, मुझे और गुस्सा आने लगा। इस दौरान वो लगातार पूछता जा रहा था की स्टेशन कब आयेगा... स्टेशन कब आयेगा? मेरे दिमाग में पता नहीं क्या आया और मैने उसे स्टेशन से बहुत पहले ही कहा की यही स्टेशन है उतर जाओ...और वो जल्दी-जल्दी चलता हुआ बस से उतर गया...
मैं नहीं जनता क्यों? लेकिन जब बस की खिड़की से मैने उसे सड़क पर लंगडाते हुए बड़ी मुश्किल से चलते देखा तो मेरी आँखों में आंसूं आ गए, दिल में बड़ी टीस सी उठने लगी। वो शायद एक फ़कीर था...
पता नहीं क्यों मैने क्यों उसके साथ एसा किया?
शायद उसके गंदे कपड़ों की वजह से या उसके अंदर से आ रही शराब की बू की वजह से ? जबकि शराब तो आज की संस्कृति का हिस्सा बन गई है, अगर मैं किसी कोकटेल पार्टी मैं होता तो क्या मुझे ये शराब की बू नहीं आती? और अगर ऐसा किया भी तो मेरी आँखों से फिर आंसूं क्यों आये ?
इन सवालों का जवाब मैं कल से अपने अंदर तलाश रहा हूँ पर मिल नहीं रहा...

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साईं का संदेश...










मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ!
झांके हैं नभ से तारे जो,
उन तारों की टिम-टिम में हूँ!
मैं ही तो हवाओं का वेग हूँ,
मैं ही तो घटाओं का मेघ हूँ!
अहसास करो तुम खुद में ही,
मैं तो हर इक के मन में हूँ!
क्यों फिरता है दर-दर पर तू?
मुझको पाने की चाहत में?
क्यों जलता है पल-पल में तू?
मैं तेरी हर हलचल में हूँ!
कर पलभर तो तू याद मुझे,
ना रहने दूंगा उदास तुझे!
आऊंगा जब पुकारोगे मुझे,
में जन-जन की सुमिरन में हूँ!
मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ...



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खो गया बचपन?

क्यों चला जाता है बचपन?
तोड़कर मासूमियत के अनगिनत स्वपन!
क्यों चला जाता है, वो नाना का घुमाना,
रातों को नानी का कहानी सुनाना,
गर्मी की लू से भरी दोपहरी,
याद आते हैं वो पल थे, सुनहरी?
क्यों चले जाते हैं, वो खट्टी-मीठी के पत्ते
वो छोटे-छोटे पाँव और लम्बे से रस्ते,
नीम की डाली पे, टंगा वो झूला,
वो मिट्टी का घरोंदा अभी तक ना भुला?
क्यों खो गयी आखिर वो बकरी की सवारी,
खिड़की के पास की वो कबूतर की अटारी?
हाथों में पिरोये उन धागों का खेल,
बगीचे की मिट्टी में, रामजी की रेल?
कहाँ है? वो बारिश के पानी की छप-छप,
वो सर्दी की रातों में घंटो की गपशप?
कुल्फिवाले की घंटी की टन-टन,
शर्तों में जीते, उन कंचों की खन-खन?
क्यों है दिल में, एक आस अब भी उसकी?
आती बहुत है याद अब भी उसकी!
अब ना मिलेगा वो, सादादिल मौसम,
खो गया है, ना जाने कहाँ मेरा वो बचपन...
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