तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है,

नदियाँ भी कल-कल बह रही हैं।

हवा में ना जाने कौन सी सरगम है,

आंसुओं में है टप-टप, तभी तो आंख नम है।

रात के होंठों पे खामोशी रह रही है,

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

पुष्पों ने सुना, षट्पद ने सुना,

झूमते हुए वृक्षों ने सुना।

गीत है कोई, या अपना दर्द कह रही है।

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

1 Response
  1. शोभा Says:

    अच्छा लिखा है। लिखते रहें।


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