तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

कोई दूर मुझे बुलाता है...

कोई दूर मुझे बुलाता है,
निसदिन अहसास कराता है।
वो जाना सा ही चेहरा है,
पर जाने क्यों धुंधलाता है।
रातों को उंघती निंदिया में,
थप-थप थपिया दे जाता है।
जब सोचूँ में, तब चौकूं में,
वो कोसों ही मुस्काता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
उलझी सी राहों में अक्सर,
दिल उसको ढूंढा करता है।
वो दूर नदी की लहरों सा,
आता है फिर चला जाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
क्यों अलसाई सी सुबह में,
वो किरणों सा बन जाता है।
में छूना उसको चाहता हूँ,
वो मुझको छु कर जाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...
निसदिन अहसास कराता है।
वो जाना सा ही चेहरा है,
पर जाने क्यों धुंधलाता है।
कोई दूर मुझे बुलाता है...

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

हमसफ़र

मेरी तरह ना जाने कितने ही हैं,
जिन्हें राही नहीं निलते।
तन्हा तय करते हैं वो सफ़र अपना।
और कितने ही मुसाफिर तो ऐसे भी हैं,
जो अपनी ही धुन में बस चले जा रहे हैं, मंजिल की तस्वीर अपनी आँखों में लिए।
वो तो पूछते भी नहीं इन रास्तों से की क्या तुम्हें भी साथ चलना है या नहीं।
ये रास्ता भी कुछ ऐसे लगता है, जैसे की एक बेज़बान माँ, जो अपने आँचल को पसारे साथ-साथ चलती जाती है।
हर सर्द-ओ-गम से लड़ती हुई। चुपचाप!
और चाहती भी नहीं की कोई उसे देखे, कोई उसे सराहे।
वैसे खुशकिस्मत हैं वो लोग जिन्हें रस्ते में कोई साथी मिला है।
जिनको सफ़र में कोई हमसफ़र मिला हो...
चाहे फिर वो हमसफ़र गम ही क्यों न हो...

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मेघ

वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं,
भरकर बूंदों की टोकरी,
वो गड़-गड़ करते आये हैं,
बैठ हवा के सिंहासन पर,
वो बिजुरी संग इतराते हैं।
इस सूखी-सूखी सी माटी पे,
गीले से तीर चलाते हैं।
दिखते हैं उनको भी नभ से,
कुछ सूखे से जो साये हैं।
वो उमड़-घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये।
वो काले हैं, मतवाले हैं,
लगते सागर के प्याले हैं।
इनकी ही चाहत में देखो,
मयूर ने अश्रु बहाए हैं।
वो उमड़ घुमड़ के आये हैं,
वो कड़-कड़ करते आये हैं...

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सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है,

नदियाँ भी कल-कल बह रही हैं।

हवा में ना जाने कौन सी सरगम है,

आंसुओं में है टप-टप, तभी तो आंख नम है।

रात के होंठों पे खामोशी रह रही है,

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

पुष्पों ने सुना, षट्पद ने सुना,

झूमते हुए वृक्षों ने सुना।

गीत है कोई, या अपना दर्द कह रही है।

सुनो सुनो धरा कुछ कह रही है...

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कोशिश



रचियता: हरिवंश राय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,

संघर्श का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।

कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती...

इस कविता को अपने ब्लॉग पर डालने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है की मायूस लोगो में विश्वास जागे।

तुम्हारा मीत

आप हरिवंश जी की अन्य कवितायेँ इस लिंक पर पढ़ सकते हैं...

http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/harivansh/

कौन हूँ??

इस अजनबी सी दुनिया में,

अकेला इक ख्वाब हूँ।

सवालों से खफ़ा सा, चोट सा जवाब हूँ।

जो ना समझ सके, उसके लिये "कौन"।

जो समझ चुके, उसके लिये किताब हूँ।

दुनिया कि नज़रों में, जाने क्युं चुभा सा।

सबसे नशीली और बदनाम शराब हूँ।

सर उठा के देखो, वो तुमको भी तो देखता है।

जिसको न देखा उसने, वो चमकता आफ़ताब हूँ।

आँखों से देखोगे, तो खुश मुझे पाओगे।

दिल से पूछोगे, तो दर्द का सैलाब हूँ...

इस अजनबी दुनिया में,

अकेला सा इक ख्वाब हूँ।

मेरे दोस्त

दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
जो कभी हंसाते हैं, कभी रुलाते हैं...
पहली बार मिलते हैं, और मुस्कुराते हैं
फिर कुछ ही पल में एक हो जाते हैं।
साथ रहते हैं, पीते हैं, खाते हैं
जरा सी बात पर घंटो कह्कहाते हैं।
कभी रूठ जातें हैं,
छोटी-छोटी बातों पर,
और कभी एकदूसरे को थोड़ा-थोड़ा सताते हैं।
खुशियाँ बांटते हैं
आपस में सारी,
हो अगर गम तो,
उसे छुपाते हैं।
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी हंसाते है, कभी रुलाते हैं...
बुरे वक्त में बनते हैं,
एकदूसरे का सहारा
हर हाल में साथ निभाते हैं।
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी रुलाते हैं, कभी हंसाते हैं...
एक की ऑंखें छलक जाएं तो
सारे ही आंसू बहाते हैं...
फिर एकदूसरे को पागल कहकर
गम में भी सब मुस्कुराते हैं...
हाँ दोस्त तो ऐसे ही होते हैं...
कभी हंसाते हैं, कभी रुलाते हैं...

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तुम्हारी आंखें

तुम्हारी आंखें!

कभी मेरे चेहरे के आस-पास

सरगोशियाँ करती हैं...

कभी आधी रात को ख्वाबों में

मेरी अंखियों से अठखेलियाँ करती हैं...

तुम्हारी आंखें!

गिरती है जब बारिश कभी मेरे तन पर

इन्हीं से निकली आंसुओं की बूंद सी लगती है...

सूख जाती है बारिश तो बरसने के बाद,

पर तुम्हारी आँखों में क्यों मुझे नमी सी लगती है...

तुम्हारी आंखें!

कुछ तो कहानी है इनमें,

जो मेरे कानो पे ये सुबकती हैं...

बोलती तो कुछ नहीं हैं पर,

एकटक मुझी को तकती हैं...

क्या करूँ में इनका, मेरी ज़िंदगी सालों से सोयी नहीं है?

तुम्हारी पथराई आँखों को देख मेरी आंख भी कब से रोई नहीं है...

वापस आ जाओ तुम कहाँ चली गई हो?

साथ अपने मेरी हँसी ले गई हो...

अपने होंठों के तले तुम्हारी आँखों को,

ढेर सा आराम दूंगा...

तुम्हारी आँखों में देखकर,

बाकि ज़िंदगी भी गुजार दूंगा...

तडपता है दिल जब ये,

मेरा पीछा करती हैं...

मुड़कर देखता हूँ तो,

छलका करती हैं...

अब सहन नहीं होता,

मुझे अपनी आँखों से मिला दो...

जहाँ तुम छुप गई हो...

मुझे भी छुपा दो....

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नयी सुबह

साँझ ढलने लगी है....
दिन के तपते हुए सूरज को,
रात धीरे-धीरे अपनी आगोश में ले रही है...
देखो न! सूरज का ये सिन्दूरी रंग दिल को कितना सकून पहुंचा रहा है...
माँ कहती हैं जब कभी तुम थक जाओ, तो ढलते हुए सूरज के सामने खड़े हो जाओ।
कितनी भी थकन हो उतर जायेगी...
मुझे ढलता सूरज देखना बहुत पसंद है।
कहने को तो ये सूरज ढल रहा है, लेकिन सिर्फ यहीं पर...
ये सूरज बेशक यहाँ ढल रहा है, लेकिन कहीं और यही सूरज उगने के लिए तैयार है
तैयार है एक नया सवेरा, एक नयी सुबह, एक नया दिन लाने को...
दूर क्षितिज पर ऐसे लगता है की जैसे सूरज धरती की गोद में समाता जा रहा है...
दुनिया कहती है की सूरज डूब रहा है, लेकिन इस बात से सब अंजान हैं की...
सूरज कभी नहीं डूबता।
क्योंकि उसका काम है बस रोशनी करना...
वो यहाँ डूबेगा, लेकिन कहीं और उदय होगा... क्योंकि उसे लानी ही है एक नयी सुबह...

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मेरी ज़िंदगी

क्या हुआ जो ज़िंदगी तमाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई

आदत सी हो गई थी मदहोश रहने की

सीने में गम छिपा कर खामोश रहने की

क्या हुआ जो हस्ती मेरी बदनाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

पीता था इस कदर की बेहोश हुआ जाता था

मेरे अपनों को मेरा गम कहाँ नज़र आता था

क्या हुआ जो बद्दुआ अपनों की मुझको इनाम हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

टूटा जो दिल तो खनक उठी हर रात

हर रात को खामोशी ही मेरी कद्रदान हो गई

जाते-जाते भी शीशे का जाम हो गई...

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पहली नज़र

वो रहस्यमयी मुस्कानें, वो भेद भरी नज़रें

वो रह रह के उनका हँसना, वो चोटी में रिबन कसना...

वो मुड़-मुड़ के देख मुझको, नज़रों से नज़र मिलाना

मौसम पतझड़ का भी बसंत लग रहा है...

मुझे नींद नहीं आती, बेचैन हो गया हूँ

आंखें बंद करने की हिम्मत नहीं है मुझमें

ऑंखें बंद करके जो तस्वीर है मन में आती

उसमें वो हसीना दिखती है मुस्कुराती

ऐ खुदा ये मुहब्बत तो नहीं ?

या किसी के आकर्षण का बन्धन तो नहीं?

जो मुझसे मेरी नींदें चुराना चाहती है

मेरा दोस्त बनकर मुझको अपनाना चाहती है...

: नवीन

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तुम्हारी यादों के पल

वक्त जो कभी थमा ही नहीं, कभी रुका भी नहीं...

चलता रहा और चलता ही रहा।

लेकिन सच ये है की वक्त केवल आगे नहीं चलता पीछे भी कटता है।

कुछ कटे वक्त अब भी हैं मेरी ज़िंदगी के खलिहान में, जो तुम्हारी याद में तिल-तिल मर रहे हैं...

शायद तुमने खुदगर्ज बन वक्त को बहुत पीछे छोड़ दिया ...

और काफी लम्बा सफर तय कर लिया...

मैं तो जैसे पत्थर बन गया, हिला भी नहीं अपनी जगह से...

बरस गुजारना होता तो यूं गुजार देता,

युगों को अपनी पलकों से झपक के साथ ऐसे उतर फेकता जैसे कोई लम्हा हो...

पर इनका क्या करूं ?

तुम्हारी यादों के पल बडे ही बेरहम हैं ये...

युगों से भी लम्बे...

कमबख्त कटते ही नहीं हैं

अब तो रूह कटती जाती है...

मेरी ज़िंदगी बूंद-बूंद आँखों से टपक रही है...

जाने कब ये बारिश रुक जाये

और ज़िंदगी का ये सिलसिला भी थम जाये...

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मुलाकात


तुम तो कहतीं थी, मेरे द्वार खुले हैं हरपल

तुम्हारे लिए!

पर वहाँ एक ताला था।

मैं सीढियों पर बैठा करता रहा तुम्हारा इंतज़ार

१ घंटा दो घंटे विवश।

आखिर मैंने खिड़की से झाँका....

सुखा गुलाब का फूल, एक किताब, मोर पंख....

फिर हवा का एक तेज़ झोंखा आया और....

कुछ पन्ने फडफ्डाये ....

एक पन्ना उड़ चला, कुछ पुराना सा परिचित सा, पीला-पीला सा पन्ना....

मैंने सिर्फ अपना नाम पढा, मुस्कुराया

ताले पर नज़र डाली और गुनगुनाता हुआ...

चल पड़ा तुमसे मिला अच्छा लगा...

एक मुलाकात और जुड़ गयी यादों की...

तुम तो मुझे छोड़ कर चली गयीं पर....

में अब भी जिंदा हूँ....


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

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