ये ज़िन्दगी एक नाटक ही तो है...
रंगमंच का नाटक...
जब कभी कहीं किसी मासूम की किलकारी गूंजी,
समझो पर्दा उठ गया है...और शुरू हो गए हैं उसके जीवन के किरदार...
जो उसे मरते दम तक निभाने हैं।
मरते दम तक यानि पर्दा गिरने तक....
जहाँ पर्दा गिरा, समझो उसकी ज़िन्दगी की शाम हो गई...
रंगमंच का पर्दा तो फट से सरक कर पुरे मंच को ढँक लेता है...
और उसके बाद कलाकार को ढेरो वाहवाही मिलती है, लोग खुश होते हैं...
पर ज़िन्दगी का पर्दा?
ज़िन्दगी का पर्दा तो धीरे-धीरे सरकता है...
किसी को न तो सुनाई पड़ती है, इसके सरकने की सरसराहट और न ही महसूस होती है...
इस बीच ज़िन्दगी न जाने कितने ही किरदारों को जीती है, हंसती है, रोती है, उदास होती है, पाती है और खोती भी है...
मैंने भी बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया...
लेकिन क्या खोया और क्या पाया, ये आज तक जान न पाया...
ज़िन्दगी मैं इतने रंग, इतने किरदार देखे की अब और कुछ देखने का मन नहीं करता...
मैं जानता हूँ की मेरी ज़िन्दगी का पर्दा भी धीरे-धीरे सरक रहा है...
एक जरा सी झिरी बची है, जिसमे से अपनों को हंसते-मुस्कुराते देखता हूँ...
लेकिन दिल में डर भी है की न जाने कब पर्दा पूरा सरक जाये और ये झिरी जिसमें से अपनों को खुश होते देख रहा हूँ, दिखने बंद हो जाएँ...
फिर तो केवल अँधेरा ही दिखेगा, अँधेरा...घुप्प अँधेरा...
अपनों को हंसते-मुस्कुराते तो देख रहा हूँ, पर...
रोते-बिलखते न देख... सकूंगा....
j© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
bahut achchi kavita.badhai.
सुन्दर लिखा है। आभार।
बहुत अच्छा लिखा है .....आशा करती हूं , आगे भी ऐसा ही पढ़ने को मिलता रहेगा।
बहुत ही अच्छा उदाहरण दिया हे आप ने, धन्यवाद
jivan ki sachai ko likh diya aapne. bhut badhiya. jari rhe.
Hitesh ji me naraj nahi hu. keval net problem ki vajah se blog par regular nahi ho pai.
बहुत खूबसूरत अंदाज में सच दिखा दिया आपने हितेष जी बधाई।
alag alag si kavita
wah aapke psot pdhkr ek purana song yaad aa gya "jindgee ek natek hai, hum natak mey kaam kerteyn hain, parda uthey hee, parda gertey he subko salam krteyn hain"
Regards