ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमकना था तेरी आँखों में,
तेरी हथेलियों मैं धंस कर रह गया...
धूल में पड़ा था कहीं मैं,
किसी पांव के इंतज़ार में...
भर के अपनी ओप में,
तूने उठाया मुझे प्यार में...
कर दिया तेरी उँगलियों को घायल,
तेरे खून से रंग कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमक सितारे में होती है,
चमक मुझमें भी थी...
तू कैसे छोड़ देती मुझे,
चाह तेरे दिल में भी थी...
पर क्यों तूने चुना मुझे,
मैं तेरे दिल में चुभ कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
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बहुत बढिया अभिव्यक्ति।सुन्दर रचना है।
चमक सितारे में होती है,
चमक मुझमें भी थी...
तू कैसे छोड़ देती मुझे,
चाह तेरे दिल में भी थी...
पर क्यों तूने चुना मुझे,
मैं तेरे दिल में चुभ कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया.
shukriya paramjeet ji..
दिल के जज्बातों को आपने बहुत खूबसूरती से कविता का जामा पहनाया है।
वैसे कांच के टुकडे का भी अपना महत्व है।
bhut hi marmik rachana hai. ati uttam. bhut hi alag si. badhai ho.
सुन्दर भाव...
निरन्तरता बनाए रखें.
बधाई...
कविता तो सुंदर है, पर मीत यह बताइए आप कभी रुलातें हैं कभी कांच बनकर चुभतें है .मेरी मानिये अबकी उसे(जिसके लिए लिखते हैं ) कोई फूल या खिलखिलाती हँसी गिफ्ट करें..
और हाँ मुझे किसी का दुःख देखकर हँसी नही आती(चाहें वाह जोकर ही हो ).कोई और उपाय करें
तूने उठाया मुझे प्यार में...
कर दिया तेरी उँगलियों को घायल,
तेरे खून से रंग कर रह गया...
बहुत ही प्यारी रचना