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जल जाता अपनी ही आग में
पर अँधेरा तो ना होता...
काश मैं एक कम्बल होता...
ओढ़कर सो लेता मुझे,
कोई न कोई फुटपाथ पे
सर्दी की रात में कोई ठिठुरता ना सोता...
सोचता हूँ...
बन जाऊँ एक जोकर...
दुखता है ये दिल,
जब कोई बच्चा है रोता...
वक्त के सलीब पर टंगी है मसीहा सी ज़िन्दगी...
क्यों नहीं किसी के काम ये आ जाती,
क्यों मेरी जान कोई नहीं लेता...?
ऐ काश के बन जाता
मैं आंसूं ही नयनों का
रिस-रिस के प्राण खोता...
और फ़िर से पैदा होता...
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