तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

वक्त के सलीब पर टंगी है मसीहा सी ज़िन्दगी...

काश मैं एक दीपक होता...
जल जाता अपनी ही आग में
पर अँधेरा तो ना होता...
काश मैं एक कम्बल होता...
ओढ़कर सो लेता मुझे,
कोई न कोई फुटपाथ पे
सर्दी की रात में कोई ठिठुरता ना सोता...
सोचता हूँ...
बन जाऊँ एक जोकर...
दुखता है ये दिल,
जब कोई बच्चा है रोता...
वक्त के सलीब पर टंगी है मसीहा सी ज़िन्दगी...
क्यों नहीं किसी के काम ये आ जाती,
क्यों मेरी जान कोई नहीं लेता...?
ऐ काश के बन जाता
मैं आंसूं ही नयनों का
रिस-रिस के प्राण खोता...
और फ़िर से पैदा होता...
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ज़िन्दगी रंगमंच का नाटक...











ये ज़िन्दगी एक नाटक ही तो है...
रंगमंच का नाटक...
जब कभी कहीं किसी मासूम की किलकारी गूंजी,
समझो पर्दा उठ गया है...और शुरू हो गए हैं उसके जीवन के किरदार...
जो उसे मरते दम तक निभाने हैं।
मरते दम तक यानि पर्दा गिरने तक....
जहाँ पर्दा गिरा, समझो उसकी ज़िन्दगी की शाम हो गई...
रंगमंच का पर्दा तो फट से सरक कर पुरे मंच को ढँक लेता है...
और उसके बाद कलाकार को ढेरो वाहवाही मिलती है, लोग खुश होते हैं...
पर ज़िन्दगी का पर्दा?
ज़िन्दगी का पर्दा तो धीरे-धीरे सरकता है...
किसी को न तो सुनाई पड़ती है, इसके सरकने की सरसराहट और न ही महसूस होती है...
इस बीच ज़िन्दगी न जाने कितने ही किरदारों को जीती है, हंसती है, रोती है, उदास होती है, पाती है और खोती भी है...
मैंने भी बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया...
लेकिन क्या खोया और क्या पाया, ये आज तक जान न पाया...
ज़िन्दगी मैं इतने रंग, इतने किरदार देखे की अब और कुछ देखने का मन नहीं करता...
मैं जानता हूँ की मेरी ज़िन्दगी का पर्दा भी धीरे-धीरे सरक रहा है...
एक जरा सी झिरी बची है, जिसमे से अपनों को हंसते-मुस्कुराते देखता हूँ...
लेकिन दिल में डर भी है की न जाने कब पर्दा पूरा सरक जाये और ये झिरी जिसमें से अपनों को खुश होते देख रहा हूँ, दिखने बंद हो जाएँ...
फिर तो केवल अँधेरा ही दिखेगा, अँधेरा...घुप्प अँधेरा...
अपनों को हंसते-मुस्कुराते तो देख रहा हूँ, पर...
रोते-बिलखते न देख... सकूंगा....

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संकटों से न तू भाग














संकटों से न तू भाग,
अपना ले सहने का राग...
स्वर्ण भी होता है तब कुंदन,
जब जलाती है उसे आग।
फूल मसला जाता है,
पर फ़िर से खिल जाता है,
काँटों से घिर कर रहता है,
सारी दुनिया महकता है।

परिंदा घोंसला बनाता है,
जो आंधी में उड़ जाता है,
वो फ़िर से उसे सजाता है,
तूफ़ान जब थम जाता है।
रात की आगोश में देख,
सवेरा भी छिप जाता है,
सूर्य के रथ पे सवार हो,
फ़िर से दिन चढ़ जाता है।
घबराकर मुश्किलों से तू,
अश्रू क्यों बहता है।
तोड़ कर इस बुरे स्वप्न को,
नींद से अब तू जाग,
संकटों से न तू भाग,
अपना ले सहने का राग...
स्वर्ण भी होता है तब कुंदन,

जब जलाती है उसे आग...
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मैं हूँ लड़की...







तुम में और मुझमें क्या है अलग?
क्या है अंतर?
क्यों मिलता है मुझी को गम
और तुमको जश्न?
मेरी ही आँखों में है प्यास
और तुम्हारी आँखें क्यों रहती हैं तृप्त?
हमारी तो जननी भी एक है...
फिर क्यों है? उसकी नज़रों में भी खोट?
क्या वो यह अंतर बताएगी?
नहीं! वो ना बता पायेगी...
यह अंतर तो किसी और ने बनाया है...
शायद उसकी भी जननी ने?
नहीं शायद उसकी भी जननी ने?
या फिर यह अंतर बरसों से चला आ रहा है?
तभी तो...
भरे दरबार में द्रोपदी निर्वस्त्र हुई,
सती भी कोई औरत ही हुई...
मीरा को ही पीना पड़ा ज़हर का प्याला,
और अग्निपरीक्षा भी सीता की हुई...
क्यों बलात्कार भी लड़की का ही होता है,
दहेज़ के लिए भी उसी को जलना होता है?
पैदा हो लड़का तो ढोल बजता है,
लड़की को गर्भ में भी मरना पड़ता है...
अब समझ में आया यह अंतर...
क्यों माँ देखती है मुझे तिरस्कार से,
और तुम्हें प्यार से।
क्योंकि तुम हो लड़के और मैं हूँ लड़की
केवल लड़की...





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कांच का टुकड़ा...













ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमकना था तेरी आँखों में,
तेरी हथेलियों मैं धंस कर रह गया...
धूल में पड़ा था कहीं मैं,
किसी पांव के इंतज़ार में...
भर के अपनी ओप में,
तूने उठाया मुझे प्यार में...
कर दिया तेरी उँगलियों को घायल,
तेरे खून से रंग कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...
चमक सितारे में होती है,
चमक मुझमें भी थी...
तू कैसे छोड़ देती मुझे,
चाह तेरे दिल में भी थी...
पर क्यों तूने चुना मुझे,
मैं तेरे दिल में चुभ कर रह गया...
ना बन पाया मैं सितारा,
एक कांच का टुकड़ा बन के रह गया...

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मैंने तुमको रुला दिया...












मुस्काते तेरे होंठों से,
क्यों मैंने तब्बसुम चुरा लिया।
हीरे सी तेरी आँखों में,
क्यों दर्द का पानी मिला दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
मासूम से तेरे चहरे पे,
बस खुशियाँ नाचा करती थीं।
खुशियों को छीना है तुझसे,
क्यों गम से नाता करा दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
कर दिया क्यों मैंने उदास,
एक चंचल, चितवन से मन को।
क्या पूरा करना था वादा,
किस कसम को मैंने निभा दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...
रोता है मन ये मेरा भी,
रोता सा जग ये लगता है।
मैंने बुझा हँसी की शम्मा को,
आंसुओं का दिया जला दिया।
हाँ! मैंने तुमको रुला दिया...

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ना उड़ पायेगी ये महक तुम्हारी...













नहीं भूल सकता मैं, उन पलों को!
हिस्सा हैं मेरी जिंदगी का हर वो लम्हा,
जो साथ गुज़ारा है मैंने तुम्हारे...
धूल-धूल हो जायेगी किताब इस दिल की,
पर यादों के फूलों को ना मुरझाने दूंगा मैं!
ताजा रखूँगा मैं इनको...
साथ तुम्हारी खुशबु के,
साथ तुम्हारी महक के!
ना उड़ पायेगी ये महक तुम्हारी...
मेरा प्यार छीन लेगा इसके उड़ने की ताक़त,
तुम्हारी महक जम जायेगी मेरी सांसों में,
अपनी जिंदगी भी तो अब जम गयी है,
ना आगे ही जायेगी, ना पीछे ही आयेगी...
हाँ पर ये कदम अगर तुम्हारी जुदाई से रुक गए?
तो फिर ना चलेंगे!
चलेंगे भी कैसे, किसके लिए..?

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