जहाँ देखता हूँ, दहशत नजर आ रही है। लोग एक डर के साये में जी रहे हैं। परसों की शाम से, देखते ही देखते चंद छुपे हुए चेहरे खुशियों के रंग को चुरा कर ले गए
आज कुछ लिखने का मन नहीं है। दो दिन से बस उदासी छाई है...
समझ नहीं आ रहा है की आखिर हो क्या रहा है...
किसिलिये हो रहा है...
कौन कर रहा है...
क्यों कर रहा है...
उसे आखिर चाहिए क्या...
आखिर वो ऐसा करके साबित क्या करना चाहता है...
मासूमो की जान से खेल कर क्या मिल रहा है उसे...
दिल से बस एक रुलाई निकल रही है...
भारत माँ का आँचल,
उसी के बच्चों के लहू से रंगा जा रहा है...
कौन मेरे वतन में,
आग लगा रहा है...
जिस तरफ देखूं बारूदी फिजा है...
सिसकियों से भरी सारी हवा है...
क्यों खुशिया बदल रही,
मातम में...
क्यों उजाला अँधेरे के,
मुहं में समां रहा है...
कौन मेरे वतन में आग लगा रहा है...
दो दिन से मन बहुत उदास है। आँखों के आगे सेंट्रल पार्क का मंजर घूम रहा है...
बस बहुत हो गया अब सहा नहीं जाता...
इश्वर से दुआ है की वो कुछ करे...
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
आज कुछ लिखने का मन नहीं है। दो दिन से बस उदासी छाई है...
समझ नहीं आ रहा है की आखिर हो क्या रहा है...
किसिलिये हो रहा है...
कौन कर रहा है...
क्यों कर रहा है...
उसे आखिर चाहिए क्या...
आखिर वो ऐसा करके साबित क्या करना चाहता है...
मासूमो की जान से खेल कर क्या मिल रहा है उसे...
दिल से बस एक रुलाई निकल रही है...
भारत माँ का आँचल,
उसी के बच्चों के लहू से रंगा जा रहा है...
कौन मेरे वतन में,
आग लगा रहा है...
जिस तरफ देखूं बारूदी फिजा है...
सिसकियों से भरी सारी हवा है...
क्यों खुशिया बदल रही,
मातम में...
क्यों उजाला अँधेरे के,
मुहं में समां रहा है...
कौन मेरे वतन में आग लगा रहा है...
दो दिन से मन बहुत उदास है। आँखों के आगे सेंट्रल पार्क का मंजर घूम रहा है...
बस बहुत हो गया अब सहा नहीं जाता...
इश्वर से दुआ है की वो कुछ करे...
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Hitesh ji, bhut hi sahi baat ko likha hai. ek khubsurat rachana ki hai aapne. jo mere dil ko chhu gayi hai.very very nice.
क्या कहे दोस्त .....अभी एक जगह राख गर्म होती ही है .दूसरी जगह सुलग जाती है...
एकदम सही कहा आपने रोज के तबाही के इन मंजरों ने मन को मौन कर सारे शब्द कुंठित कर दिए हैं.बस उस ईश्वर से पूछती हूँ,कि तेरी बनाई इस दुनिया का तेरे ही संतान ने क्या हाल कर रखा है.........तू खामोश क्यों है..
बहुत सुन्दर लिखा है। सस्नेह
क्या कहे मीत, अनुराग जी ने ठीक कहा है।
खून इंसान का बह रहा है। पता नही किसकी नजर लग गई।
" sach kha hai, bhut asehneey or dardnaak manjar hai, kisko dosh deyn ptta nahee.... magar jinhone khoya hai unka kya?????"
Regards
pata nahi kya kahon..........
बस उदासी छाई है...
sach kaha...baar baar hoti in ghatnaon se man bahut udaas hai....pata nahi kab tak chalega ye silsila..
मीत जी अच्छी कविता लिखी है आपने पता नहीं क्या होगा इस देश का और कब अंत होगा देश से आतंकवाद का बहुत ही चिंतन का विषय बना हुआ है यह
मीत जी, बहुत ही भावुक कविता लिखी हे आप ने, जब हम जागेगे तभी हमे इस बिमारी से छुट्कारा मिलेगा.... हम सब के पास हे एक ही रास्ता.... भर्ष्ट नेताओ को हटाओ... जिस के लिये हम सब को अपनी अपनी वोट डाल कर अपनी ताकत दिखानी होगी, ताकि इस वोट की राज नीति से यह कमीने नेता तोवा करे, ओर अपनी कुर्सी की जगह देश की सोचे
देश को बचाने का यही एक रास्ता हे भगाओ इन गुण्डो को ओर नये लोगो को जीताओ, दल बदलूयो को बिलकुल भी वोट ना दो
बहुत ही दुखद और निन्दनीय हादसे पर आपने एक प्रभावी अभिव्यक्ति दी है.
जानवर कभी इस तरह सामूहिक हत्याएं नही करते, सिर्फ़ पेट भरने के लिए एक ही जीव को मारते हैं, और इन नरपिशाचों ने इतने लोगों को मार भी दिया और खाया भी नही !