तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

फर्ज

सागर मंथन में एक बार कभी विषपान किया था शिव तुमने,
जीवन मंथन में रोजाना ही गरल पिया है मानव ने
हम भी भंग की खा बूटी सच से आंख चुरा सकते थे
पीकर एक बार ही विष का प्याला
फर्ज से मुक्ति पा सकते थे!
कैद से इस निर्गुण शरीर की ,
आत्मा को अपनी छुडा सकते थे,
होकर के दूर इस पापी जग से,
दूजी दुनिया में जा सकते थे!
लेकिन फिर ऐसा करने से,
मेरी आत्मा ने रोका मुझको
मोह, माया, लोभ, क्रोध और लालच,
इन सबकी भट्टी में झोंका हमको!
बहुत की कोशिश हमने शिव जी,
अपना फर्ज निभाने को!
सुलग गए हम, झुलस गए हम,
माबाप का सपना पाने को ...

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