मैं लेटा हूँ अंतिमशय्या पे..
आंगन में विलाप है..
आंसू हैं.. आहें हैं..
चीखें हैं, चीत्कार है..
अच्छा लगता है आज घर के आंगन में,
जमा हुआ पूरा परिवार है..
लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं..
मेरे अपनों को दिलासा बंधा रहे हैं..
वक्त अब बढ़ चला है..
रथ मेरा सज चुका है..
एक राह खत्म हो गयी...
एक सफ़र शुरू हुआ है..
अलविदा कह के मुझको सब चले जायेंगे..
मेरे घर-आंगन फिर से सूने हो जायेंगे..
मीत
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उफ़ …………कैसे सच्चाई को चित्रित कर दिया है।
यही तो सच्चाई है.लेकिन इस सच से हम सभी आँखें चुराते हैं.
कटु सच बोलती कविता है .
बहुत दिनों बाद आप की वापसी हुई.स्वागत.
सच्चाई है, और प्रस्तुत करने का ढंग बेहतरीन है.