गोबर से लिपे हुए आंगन नहीं दिखते..
गाँव के पास अब हाट नहीं लगते..
न कहीं, पेड़ों पे आम की बौर है.न नदी के पानी का मध्यम सा शोर है.
वो चिमटा, वो फूकनी, वो चूल्हा कहाँ है?
अब तो बस पेट्रोल और डीजल का धुआं है.
डाली पे अब कहीं झूले नहीं टांगते..
गाँव के पास अब हाट नहीं लगते..
चौपाल पे हुक्कों की गुड़गुड़ नहीं है.अम्मा के हांथो की गर्मी नहीं है.
पाठशाला की घंटी की टन टन कहाँ है?
अब तो के-बोर्ड की टक-टक जवान है.
रामू और गीता अब तितली नहीं पकड़ते..
गाँव के पास अब हाट नहीं लगते..
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अब तो की -बोर्ड की टक-टक जवान है.
-सब कुछ कह गयी ये एक पंक्ति....
--अब गाँव कहाँ रह गए..अब वो चिमटा, वो फूकनी, वो चूल्हा कहाँ है?...गीले हाथ की बनी नमकीन रोटियां..ताज़ा बना छाछ ..नीम के पेड़ों पर झूले..बारिश में उठने वाली सोंधी खुशबू...कुछ भी तो नहीं दिखता अब..
बहुत अच्छी कविता है..कितना कुछ कह रही है..वक़्त के बदलते रूप दिखाती सी..
waah...kya baat hai
'पुराने गाँव' की यादें मन को छू गयीं।
wah.......bahut sundar likha hai.......poora chitra uker diya hai.
बहुत सुंदर ढंग से आप ने गांव का दर्द बताया, बहुत उम्दा लगी आप की यह कविता.
धन्यवाद
सब कुछ तो कह दिया
भाई आजकल तो सब कुछ इससे उलट ही है. यह भी मानव विकास का प्रतिफ़ल है. आज तो आपको यह याद तो है कि पहले ऐसा होता था आने वाली पीढी इसे भी कथा साहित्य समझेगी.
रामराम.
Sab bazar ki maya hai.
जीवन के बदलावों को अंकित करती अच्छी रचना।
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बूझ सको तो बूझो- कौन है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
Very Nice poem hai meet ji , aap bahut hi accha likhte hai........
कैसे हैं मीत भाई?
"अब तो के-बोर्ड की टक-टक जवान है.
रामू और गीता अब तितली नहीं पकड़ते.."
अपने आस-पास का सच
sach kaha aapne. gaav kho hi gaye hain.... sunder rachna
कितना कुछ कह रही है..वक़्त के बदलते रूप दिखाती सी..
जीवन की तल्ख सच्चाईयाँ....
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ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
achchi rachna.
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना
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अल्पना जी की सुन्दर प्रतिक्रिया जैसे ही भाव हमारे मन में भी है !
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आभार एवं शुभ कामनाएं