तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था...

देर तक वो मुझसे बात करता रहा...
पोंछने को बार बार पसीना,
अपनी हथेलियों को चेहरे पे मलता रहा,
पसीने से उसका भी बदन, तरबतर था...
हाँ! कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था...
बोला यार...
"यहाँ तो हवा बहुत गरम है,
तुम्हारे बिछोने में अग्नि की तपन है,
किस तरह तुम इस पे, लेटते होगे..?
क्या रोटियां भी इसी पे सेकते होगे..?
सोचता था, मैं की धरा बहन तो बेदाग़ है...
पर इसके सीने में तो सूरज सी आग है...
उसका हर लफ्ज, मंद-ऐ-फ़िक्र था..."
कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था...
मैंने कहा...
"ये हवा मेरी सांसों से निकली है,
बिछोने में, माँ के हाथो की गर्मी है,
लेटते ही इस पे नींद आ जाती है,
कितनी ही भूख हो, पल में मिट जाती है,
तुमने सही सोचा धरा में ना कोई दाग है,
जिसे तुम आग कहते हो,
वो मेरे लिए लोरियों का राग है,
मेरी बात सुन...
जा बैठा वो फिर गगन में फुर्र फुर्र सा..."
हाँ! कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था...

रात फिर करवटों में जायेगी
भीगे बदन से नींद ना आयेगी
आज फिर हवा बहुत गरम है...



© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
19 Responses
  1. अच्छी रचना के लिए बधाई...


  2. abhivyakti Says:

    आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

    गार्गी
    www.abhivyakti.tk


  3. "ये हवा मेरी सांसों से निकली है,
    बिछोने में, माँ के हाथो की गर्मी है,
    लेटते ही इस पे नींद आ जाती है,
    कितनी ही भूख हो, पल में मिट जाती है,

    बहुत लाजवाब. शुभकामनाएं.

    रामराम.


  4. "ये हवा मेरी सांसों से निकली है,
    बिछोने में, माँ के हाथो की गर्मी है,
    लेटते ही इस पे नींद आ जाती है,
    कितनी ही भूख हो, पल में मिट जाती है,
    तुमने सही सोचा धरा में ना कोई दाग है,
    जिसे तुम आग कहते हो,
    वो मेरे लिए लोरियों का राग है,

    बहुत सुन्दर लगी यह रचना ..


  5. जा बैठा वो फिर गगन में फुर्र फुर्र सा..."
    हाँ! कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था...

    वाह......कितनी सुन्दर कल्पना..चाँद और फुटपाथ पर...........
    सुन्दर भाव, मीठे एहसास से भरी रचना


  6. बहुत खूब भाई...अनूठी कल्पना की है आपने और बहुत अच्छे शब्द दिए हैं...लिखते रहें.
    नीरज


  7. मीत भाई प्रतीक बहुत ही बेहतरीन प्रयोग किये आपने।
    हाँ! कल रात फलक का चाँद फुटपाथ पर था।
    नई टोन , नया प्रयोग। और लफ़्ज का तो जवाब नही।
    ये हवा मेरी सांसों से निकली है,
    बिछोने में, माँ के हाथो की गर्मी है,

    क्या कहूँ इस पर, बस माँ के हाथों सा सुन्दर। एक बात और वक्त ने आपके हाथ रोक रखे है। नही तो मासा अल्ला ...........


  8. सुंदर रचना ,बधाई .


  9. रात फिर करवटों में जायेगी
    भीगे बदन से नींद ना आयेगी
    आज फिर हवा बहुत गरम है...


    --बहुत सुन्दर रचना..मन को भा गई.


  10. सुभानालाह .इस गुल्जारिश अंदाज पे कौन न मर जाये


  11. Alpana Verma Says:

    जिसे तुम आग कहते हो,
    वो मेरे लिए लोरियों का राग है,

    वाह!क्या बात है!

    बहुत खूब!


  12. वाह क्या कहने। बहुत खूब मीत जी।


  13. मीत भाई....सुभानल्ल्लाह....क्या लिखते हो यार !
    एकदम अनूठी रचना....महज तारीफ़ करने के लिये नहीं कह रहा-दिल से है।
    सुंदर कोमल सामान्य शब्दों में एक अद्‍भुत कविता और गज़ब की गेयता लिये...
    कुछ रचनाओं को पढ़कर लगता है कि ये मैंने क्यों नही लिखी....कुछ ऐसी ही कविता है ये तुम्हारी...
    आज दिनों बाद आया हूँ इधर और दिन बन गया अपना


  14. Sajal Ehsaas Says:

    shashakt lekhan hai bahut...aur chaand ka chitran is baar naye dhang se kiya gayaa..mast bahut mast :)


  15. art Says:

    कमाल की सोच है ....
    बहुत ही गहेरा लिखा दिया आपने....अबकी बार....


  16. admin Says:

    फलक का चांद जब फुटपाथ पर उतर आता है,

    शायर की जबा पर एक सुंदर सा शेर बन जाता है।

    -----------
    SBAI TSALIIM


  17. bahut khoob/
    wah janab aapne jin visheshno ka upyog kiya lazvaab he/rachna Behtreen he/


  18. सत्यम.... शिवम... सुंदरम..



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