रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...
प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
हर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...
तकिया से मन को, कभी सराहने पे दबा लेता,
बिछौना बना ज़िन्दगी के पलंग पे कभी बिछा लेता,
आज ये ख्वाहिशों की लाठी बन, मुझसे लड़ चला है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...
हाँथ है की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुहं फेर के पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है...
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