मौत तू एक कविता है...
मुझसे एक कविता का वादा है,
मिलेगी मुझको!
डूबती नजरों में
जब दर्द को नींद आने लगे...
जर्द सा चेहरा लिए जब चाँद,
उफक तक पहुंचे...
दिन अभी पानी में हो,
रात किनारे के करीब...
ना अँधेरा,
ना उजाला हो...
ना आधी रात
ना दिन...
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए...
मुझसे एक कविता का वादा है...
मिलेगी मुझको...
फ़िल्म आनंद की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद हैं... सच के करीब ले जाती हैं, सोचा आपसे बाँट लूँ... हाँ ये हकीक़त ही तो है की मौत की धुन दबेपाँव ही तो आती है , सुनायी कहाँ देती है उसकी पदचाप...
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
मुझसे एक कविता का वादा है,
मिलेगी मुझको!
डूबती नजरों में
जब दर्द को नींद आने लगे...
जर्द सा चेहरा लिए जब चाँद,
उफक तक पहुंचे...
दिन अभी पानी में हो,
रात किनारे के करीब...
ना अँधेरा,
ना उजाला हो...
ना आधी रात
ना दिन...
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए...
मुझसे एक कविता का वादा है...
मिलेगी मुझको...
फ़िल्म आनंद की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद हैं... सच के करीब ले जाती हैं, सोचा आपसे बाँट लूँ... हाँ ये हकीक़त ही तो है की मौत की धुन दबेपाँव ही तो आती है , सुनायी कहाँ देती है उसकी पदचाप...
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जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए...
" मौत सच में एक कविता ही है.....कब कैसे बन जाए किस को पता.......बेहद भावनात्मक अभिव्यक्ति.."
Regards
बाबू मोशाय जितना चलते हुये धरती पर आप पा सकते हैं उतना उडते हुये आकाश में नहीं..
आनन्द से एक और मुलाकात करवाने के लिये आभार
यह पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी है शुक्रिया इनको पढ़वाने के लिए
मीत जी जब छोटा था तो ऐसी फिल्में ना जाने क्यों अच्छी लगती थी। आनंद हो या सफर या कोई और सब दिल के करीब लगती थी। तब मैंने भी ये कविता अपनी डायरी में लिख ली थी। और आज फिर से पढने को मिली तो अच्छा लगा।
ना अँधेरा,
ना उजाला हो...
ना आधी रात
ना दिन...
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए.
आपने याद ताजा करवा दी आनंद की........ये पहली पिच्ग्तुरे थी जो मेरे जेहन में छा गयी थी. ये पिक्चर देख कर मुझे २ दिन तक नींद में भी इसी की बाते घूमती रहती थीं, और ये डायलोग आज भी ताज़ा हैं मेरी यादों में, गुलज़ार के लिखे बोल हैं ये शायद
जीवन की ललक से भरे ये बोल, बहुत खूबसूरत हैं
बहुत ही सुंदर लगे आप की कविता के भाव....
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए...
धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
Bhot khub Meet ji...bhot sunder kavita.....
जिस्म जब खत्म हो
और रूह को साँस आए...
" मौत सच में एक कविता ही है.....कब कैसे बन जाए किस को पता...
बहुत खूबसूरत ....!!
गुलज़ार की ये पंक्तिया यही साबित करती है की कितने पूर्व से हमारी कुछ फिल्म भी मानवीय सवेदनायो के कई पहलू दिखा रही है.....
Ek baar maine," Aiye maut tu istarah aa.." kavita likhee thee..yaad nahee blogpe hai yaa nahi..khair..
Aapkaa blog abhi aur kaafee padhna chahti hun...pehlee baar aayee hun..
Jo kuchh padha wo saadgeese likha hua hai...jaise koyi dost baaten karta hai...anek shubhkamnayen!
भावनात्मक अभिव्यक्ति..
दिल की गहराईयों में उतर जाने वाली कविता। इसे पढकर तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि आपकी कविता आपको यथाशीघ्र मिल जाए।
गुलज़ार की इस नज़्म का मैं भी बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं और खास कर आनंद में अमिताभ की उस गुंजती आवाज में इसको सुनना.....
जिसे हंसते हुए गुनगुनाना है।
shukriya Meetji aapka... aanand film ki ye panktiya ke liye