तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत

काश उस मोहल्ले में मेरा भी घर होता..

        आज बहुत दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ, काफी दिनों से व्यस्तताओं के चलते ब्लॉग से दूर रहा ...
एक कोशिश की है दिल  के जज्बातों को रचना बनाने की , उम्मीद है आपको पसंद आये ...






कमरे के कौने में धूप का टुकड़ा,
रोशनदान से छन कर आता.
छत पे माँ अचार और पापड सुखाती
और नीचे पार्क में पिता के दोस्तों का जमावड़ा होता.
देखता हूँ ख्वाब ये कब से?
काश उस मोहल्ले में मेरा भी घर होता..
आँगन में बच्चे धमा-चोकड़ी करते
और तुमने साड़ियों को रस्सी पे सुखाया होता..
सांझढले मैं थक कर आता
तुमने मेरे इंतज़ार में पलकों को बिछाया होता,,
देखता हूँ ख्वाब ये कब से?
काश उस मोहल्ले में मेरा भी घर होता..
                                             --मीत 

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