आज बहुत दिनों बाद आना हुआ. ब्लॉग से कुछ दिनों के लिए नाता ही टूट गया था... पर फिर अचानक एक अंजान दोस्त की मेल आई और खींच लायी मुझे फिर यहीं... एक छोटी सी कल्पना या फिर सच जो भी है? आपकी नज़र है... उम्मीद है पसंद आये... तुम्हारा मीत
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टिमटिमा पाते नहीं ये,
धुंध इन पर चढ़ रही है,
दिखती नहीं, धरती से अब तो,
चमक इनकी लगी है खोने..
आ गगन पर पहुंचा हूँ मैं,
घिसने को तारों के कोने..
तपन सूरज की बढ़ रही है,
चाँद की ठंडक से अड़ रही है,
आग सी फैली है फिजा में,
कैसे कोई जायेगा सोने..
आ गगन पर पहुंचा हूँ मैं,
घिसने को तारों के कोने..
द्रोपदियां यूँ मर रही हैं,
दुश्शासनो से लड़ रही हैं,
क्यों नहीं आता कोई कृष्ण,
कंसों को फिर से मिटाने..?
आ गगन पर पहुंचा हूँ मैं,
घिसने को तारों के कोने..
----मीत----
* फोटो punchstock.com के सोजन्य से.
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