तोड़ के सूरज का टुकड़ा, ओप में ले आऊं मैं! हो जलन हांथों में, तो क्या! कुछ अँधेरा कम तो हो. -मीत
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इंसान

हर रोज में बेच रहा हूँ
अपने ज़मीर को
हर रोज अपनी
आत्मा को तड़पा रहा हूँ
हर रोज एक नया झूठ बोलकर
अपनी अतृप्त क्शुब्धा को बुझा रहा हूँ
देखो में आज का इंसान हूँ
अपनी इंसानियत को बेच कर खा रहा हूँ...
नवीन भैया 
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